ख़ुद को तनहा

ख़ुद को अक्सर यूँ तनहा पाता हूँ मैं
दीवारों से अपना सर टकराता हूँ मैं

इक आवाज़ पे कभी खिंचे आते थे जो
उन्हें बेसाख़्ता बे-सूद बुलाता हूँ मैं

घर के चिराग़ तो कब के जल बुझे
इक दिल है सो रात भर जलाता हूँ मैं

तुम क्या जानो अपनी ख़्वाहिशों को
करके दफ़्न कितना सुकून पाता हूँ मैं

मेरे साथ रक़्स करती है कायनात सारी
ज़िंदगी का कुछ ऐसे जश्न मनाता हूँ मैं

यक़ीं मानो अक्सर तन्हाई में आजकल
करके याद तुम्हें बेवजह मुस्कुराता हूँ मैं

 

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