सफ़र

है रूह का सफ़र बदन दर बदन
हर उम्र में नसीब फिर वही थकन

बढ़ी कुछ यूं मेरे चिराग़ की लौ
हवाओं को भी हुई थोड़ी जलन

फिर तुमने शायद पुकारा मुझे
महसूस हुई फिर इक मीठी चुभन

ऐ सिकंदर तू भी ज़रा देखता जा
ये तेरी ताक़त औ’ ये तेरा कफ़न

कैद है चंद लकीरों में किस्मत
करता है मर्ज़ी से फैसले ज़मन

सुना है हमने तज गुरूर ए हमन
रहे रहीम कबीर राम धुन में मगन

हर शहर लगता है अपना सा हमें
हो दिल्ली, लंदन, अवध या दकन

Subscribe to Blog via Email

Receive notifications of new posts by email.

Discover more from ओझल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading