रात गए सोचता रहता हूँ मैं
ये किस रोग में मुब्तला हूँ मैं
बाहर बहुत शोर था बरपा
सो अपने अंदर आ छुपा हूँ मैं
दूर इक चिराग़ सा दीखता है
क्या घर से निकल गया हूँ मैं
वो ख़्वाब भी शायद टूट गया
जो आज सुकूँ से सो रहा हूँ मैं
जला के घर अपना ’ओझल’
हाथ बड़े मज़े से सेंकता हूँ मैं