तुमने बड़ी आसानी से कह दी दिल की बात

तुमने बड़ी आसानी से कह दी दिल की बात
मुझे ख़ुद को देर तक समझाना बहुत पड़ा

उसने एक नज़र भर के देखा था मुझे यूँ ही
मुझे ख़ुद से मिलने दूर जाना बहुत पड़ा

आज बारिश में भीगती देखी फिर मुहब्बत
मुझे ख़त उसके पढ़के जलाना बहुत पड़ा

मेरी माँ की दुआएँ चली उम्र भर मेरे साथ
दो जहाँ ख़रीदने को ये ख़ज़ाना बहुत पड़ा

‘ओझल’ इस दिल की मजबूरियाँ क्या कहिए
अश्कों को छुपाने के लिए गाना बहुत पड़ा

हमारा दिल कुछ ऐसे काम में लाया गया

हमारा दिल कुछ ऐसे काम में लाया गया
इक दिया बार-बार जलाया गया बुझाया गया

शहर में आग लगी थी तो ये लाज़िमी था
एक मक़तूल को ज़िम्मेदार ठहराया गया

इन सियासी झगड़ों से आखिर क्या निकला
सरहद पे कुछ और जवानों का खूं बहाया गया

तुम्हारे हसीं ख़्वाबों की तामील के लिए
मसीहा को फिर एक बार सूली पे चढ़ाया गया

चाँद सितारे नहीं ना सही

चाँद सितारे नहीं ना सही
कुछ सहारे नहीं ना सही

मैं तुम्हारी हर अदा को चाहूँ
तुम हमारे नहीं ना सही

नींद तो रोज़ ही आ जाती है
साथ तुम्हारे नहीं ना सही

समन्दर के थपेड़े तो हमारे हैं
साथ किनारे नहीं ना सही

मैं ये नहीं कहता…

मैं ये नहीं कहता कि सब मेरी सुने, मेरी करें
लेकिन ज़रा सी मुरव्वत तो मेरे हक़ में हो

तुम्हारे बेरूखियाँ सभी सर आँखों पे लेकिन
एक छोटी सी मुस्कुराहट तो मेरे हक़ में हो

हर तरफ़ है ज़ोर तुम्हारी कामयाबियों का
मेरी कमज़ोरियों की ताक़त तो मेरे हक़ में हो

तुम जिस हाल में रखो मैं ख़ुश रहूँ हरदम
अरे! मेरी अपनी हालत तो मेरे हक़ में हो

दिल्लगी, रुसवायी, दोस्ती, अदावत,
‘ओझल’ एक मुहब्बत तो मेरे हक़ में हो

अपने दिल की बर्बादी का मंज़र जवाँ देखूँ

अपने दिल की बर्बादी का मंज़र जवाँ देखूँ
भीड़ है मेरे ही दोस्तों की मैं जब जहाँ देखूँ

इतना डर लगता है अपनी वहशत से कि अब
दिल के आईनाखाने में तस्वीर-ए-जाना देखूँ

देखता हूँ गिरती दीवारों को अपने इर्द-गिर्द
गो तमन्ना मेरी भी है इक महल मैं बनता देखूँ

हमेशा देखी है तुम्हारी आँखों से ये दुनिया मैंने
अब जी चाहे किसी रोज़ कुछ तो नया देखूँ

किसी और के दर्द को समझूँ भी तो भला कैसे
अना का तक़ाज़ा है कुछ ना अपने सिवा देखूँ

दर्द ही मरासिम का नाम हो शायद

दर्द ही मरासिम का नाम हो शायद
ये तड़प मेरे दिल का बाम हो शायद

इजहार-ए-मुहब्बत को मंज़ूर ख़ामोशी
यही इसका वाजिब अंजाम हो शायद

रात आई मुझे याद इक भूली हुई धुन
मेरे माज़ी का खोया कलाम हो शायद

दिल धड़का आज बहुत बरसों बाद
लिया किसी ने तुम्हारा नाम हो शायद

नज़रें बचाके गुज़रे हैं अमीर उससे ऐसे
फ़क़ीर देता खुदा का पैग़ाम हो शायद

गले मिलो ‘ओझल’ यार हो या दुश्मन
कौन जाने ये आख़िरी शाम हो शायद

क्या अब ये दर्द तुमसे सम्भाला नहीं जाता

क्या अब ये दर्द तुमसे सम्भाला नहीं जाता
थक गए पाँव, काँटा निकाला नहीं जाता

एक बड़ी ज़िम्मेदारी है भरोसा निभाना भी
बोझ वफ़ा का सबसे सम्भाला नहीं जाता

हर तबस्सुम से नयी चोट मिलती है दिल को
यूँ शीशे पे पत्थर तो उछाला नहीं जाता

जवानी गुज़ारी है ज़रूर इश्क़ में गुम हमने
ये रोग मगर हमसे और पाला नहीं जाता

इक उम्र की मशक़्क़त का सिला आब-ए-हयात
गर है तो समंदर अब खंगाला नहीं जाता