चाहिए

मुझे एक अलग पहचान चाहिए
पंख ना सही मगर उड़ान चाहिए

नींद के लिए बिस्तर नहीं काफ़ी
बदन को थोड़ी सी थकान चाहिए

मेरी ज़िन्दगी मुकम्मल है उससे
जाने क्यूं उसे इक जहान चाहिए

हर खुशी बगावत है तुम्हारे लिए
हर शख्स तुम्हें परेशान चाहिए

आवाज़ें उठने लगी हैं खिलाफ़ बहुत
आज एक जंग का ऐलान चाहिए

बड़े सूरमा बने फिरते थे “ओझल”
आज चुप हो जब बयान चाहिए

कत’अा

रात मुझसे मिलने कुछ दोस्त घर आए
गले मिलने आए थे, लाठियां लेकर आए
सुबह तलक मुहब्बत टपकती है माथे से
मज़ा आए जो इलज़ाम भी मेरे सर आए

कहते हैं आप

सच वही जो हम कहें, कहते हैं आप
हमारी बात सब सुनें, कहते हैं आप

ये कैसा शोर है गलियों में आजकल
सब सी लें होंठ, चुप रहें, कहते हैं आप

आपका तो ज़ुल्म भी है नेमत हुज़ूर
शुक्रिया हम अता करें, कहते हैं आप

आपका हर लफ्ज़ है पत्थर की लकीर
सर झुका के मान लें, कहते हैं आप

जो हो खिलाफ़ उसको काट दीजिए
फिर कभी ना सर उठे, कहते हैं आप

तुम सो जाओ मेरी जाँ

शोर है बारिश का बाहर, तुम सो जाओ मेरी जाँ
तड़प रहा हूँ मैं अंदर, तुम सो जाओ मेरी जाँ

कहना चाह रहा था मैं बहुत दिनों से कुछ तुमसे
चैन नहीं आता मुझे, पर तुम सो जाओ मेरी जाँ

तुम्हें क्या दिल किसी का क्यूँ बेचैन रहा करता है
छोड़ो बेकार के चक्कर, तुम सो जाओ मेरी जाँ

जागोगे तो देर तक कोई दुखड़ा रोता रहेगा
ढाँप के मुँह पे चादर, तुम सो जाओ मेरी जाँ

मैं हैरान, वो परेशान, ये ग़मज़दा, वो मुफ़लिस
सबका अपना मुक़द्दर, तुम सो जाओ मेरी जाँ

इस दुनिया का काम है जलना, ये कुछ तो कहेगी
तुम क्यूँ होते हो मुज़्तर, तुम सो जाओ मेरी जाँ

*मुज़्तर = restless

क्या कहते हो

सबको अपना कहते हो, क्या कहते हो
और हमें झूठा कहते हो, क्या कहते हो

तुम्हें यकीं है इश्क़ के बदले इश्क़ मिलेगा
बच्चों सी बातें करते हो, क्या कहते हो

नाव डुबोते रहना उसकी फ़ितरत होगी
तुम किनारों पे रहते हो, क्या कहते हो

थम जाता है वक़्त तुम्हारी आहट से
तुम दुनिया से डरते हो, क्या कहते हो

अब भी जवाँ है मेरे दिल में वो लम्हा
तुम भी तो उसे जीते हो, क्या कहते हो

दर्द मिले हैं इस दुनिया को कितने तुमसे
खुद को खुदा कहते हो, क्या कहते हो

सुना है किसी ने तुम्हारा दिल तोड़ा यानि
तुम भी दिल रखते हो, क्या कहते हो

कुछ नहीं कहना

तो क्या आज भी हमें कुछ नहीं कहना है ?
जो कुछ आप करें, उसे चुपचाप सहना है ?

अपने बदन से रिसते लहू के सुर्ख कतरों से
क्या आज भी हमें गिरेबां सीना अपना है ?

सुना है आपकी नज़रों में चुभने लगे हैं हम
हमने कब चाहा आपकी आँखों में रहना है ?

खींच दी है दिलों के बीच एक और लकीर
क्या हर इंसां को दूसरे से दूर ही रहना है ?

ज़ाहिर-ए-इख़्तिलाफ़ को ए’तिमाद चाहिए
नाक़ाबिल-ए-ऐतबार से और क्या कहना है?

शोर है हर-सू आपके ही जलवों का हुज़ूर
क्या हर ख़ामुशी को बग़ावत ही कहना है ?

कितना यकीं दिलाऊँ

अब तुम्हें और कितना यकीं दिलाऊँ
कह दो तो ज़हर खाऊँ औ’ मर जाऊँ

जो नक्श हैं दिल पर, नेमत हैं उसकी
मैं मासूम हर ज़ख़्म उसी को दिखलाऊँ

लगाऊँ आग अपने ही नशेमन को मैं
बा’द उसके बर्बादियों का जश्न मनाऊँ

लकीरों से हारना लिखा था तक़दीर में
है ख़्वाहिश अपने हाथों से इन्हें मिटाऊँ

सर्द रातों में किसी की याद की चादर
ओढ़ लूँ अपने बदन पर, और सो जाऊँ

लो सुब्ह का सितारा भी दिखने लगा
तुम जो आँख मूँद लो, तो मैं घर जाऊँ

हर रोज़ निकलता हूँ जीतने दुनिया को
हर शाम अपने बच्चों से मैं हार जाऊँ

कौन समझा है किसी और का दर्द मगर
इक झूटी दास्ताँ से अपना जी बहलाऊँ

मैं

दीवारों से घिर गया था मैं
एक घर बनाने चला था मैं

मेरी कहानी अधूरी ही रही
एक किरदार ढूँढता था मैं

शिकायतें थीं उसे मुझसे बहुत
और ये भी कि अच्छा था मैं

रूह तड़पती रह गई मेरी
अपने बदन में फँसा था मैं

लड़ाई ख़ुद से थी मेरी और
दूसरों से लड़ रहा था मैं

किसी से कोई गिले नहीं
ख़ुद कौन सा पारसा था मैं

हाँ कुछ याद आ तो रहा है
तुझसे कभी मिला था मैं

देर तक समझाया उसे मैंने
उसे देर से समझा था मैं

मैं जो अपनी तरफ़ भी ना था
उसे यक़ीं कि उसका था मैं

ऐसा भी हो सकता है

ये ठोकर आख़िरी हो ऐसा भी हो सकता है
मंज़िल यहीं कहीं हो ऐसा भी हो सकता है

सलाम करता है बहुत झुक झुक के सबको
ये झूठी आजिज़ी हो ऐसा भी हो सकता है

हर मुस्कुराता चेहरा दोस्त नहीं होता मेरे दोस्त
तुमपे छाई बे-ख़ुदी हो ऐसा भी हो सकता है

एक ज़िंदगी बसर की है मैंने उसके साथ मगर
वो फिर भी अजनबी हो ऐसा भी हो सकता है

पहली मुलाक़ात में मुझे सीने से यूँ लगाना तेरा
कोई रक़म पेशगी हो ऐसा भी हो सकता है

मेरी किसी बात पे इंकार नहीं करती है लेकिन
वो कुछ और चाहती हो ऐसा भी हो सकता है

थकन से मर ही जायें मगर अगले मोड़ से कहीं
हमें ज़िंदगी पुकारती हो ऐसा भी हो सकता है

 

दिल इसी सोच में

दिल इसी सोच में है डूबा हुआ
तुम तो मसीहा थे, तुम्हें क्या हुआ

मुस्कुरा रहें हैं कोई देख ना ले
कहीं आँख से लहू रिसता हुआ

तुम तो ग़ैर थे, तुम्हें क्या कहते
कौन अपना था जो अपना हुआ

आख़िरी ख़्वाब था सो वो भी टूट गया
चलो ये एक काम भी अच्छा हुआ

कल शाम साहिल पे देखा था
इक दरिया आग का बहता हुआ

साहिब-ए-मंसब तक ये पैग़ाम पहुँचे
तख़्त हमेशा किसी का ना हुआ