जाने क्यूँ

कोई धड़का सा लगा हुआ है जाने क्यूँ
दिल में इक चोर छिपा बैठा है जाने क्यूँ

यूँ तो मेरी राह से कितने हसीन गुज़रे हैं
तू मेरी आँखों में बस गया है जाने क्यूँ

ये मेरी सादा-दिली है या ख़ुश-फ़हमी
अब भी तेरे वादे पे भरोसा है जाने क्यूँ

हुआ है ऐलान-ए-ख़ुशहाली शहर में
मगर हर चेहरा रुआँसा है जाने क्यूँ

बात इतनी है कि बात मुकम्मल ना हुई
जवाब का तुझसे तक़ाज़ा है जाने क्यूँ

सुनी है वैसे कहानी ये कई बार हमने
अब के उन्वान कुछ नया है जाने क्यूँ

 

ज़िंदगी ही तो है

संजीदगी से क्या लेना इसे, ज़िंदगी ही तो है
निकला कौन ज़िंदा यहाँ से, ज़िंदगी ही तो है

जिस्म सारे छलनी हैं अपनी हसरतों से यहाँ
कोई महफ़ूज़ भी रहे कैसे, ज़िंदगी ही तो है

उम्र गुज़र जाती है तदबीर खोजते ख़्वाबों की
ख़्वाहिशों की लम्बी क़तारें, ज़िंदगी ही तो है

हो सुकूत-ए-तन्हाई या फिर शोर-ए-महफ़िल
ये दोनों दो पहलू हैं जिसके, ज़िंदगी ही तो है

गुज़रती हर इंसान की, अकेले ही मगर फिर भी
सब हमदम खोजते जिसमें, ज़िंदगी ही तो है

बाशिंदे हों महलों के, या गंदी बस्ती में रहते हों
दुख साथ ही चलते हैं सबके, ज़िंदगी ही तो है

हो जाता शुरू मौत का सफ़र, पैदा होते ही
क्यूँ सब अपनी लाश हैं ढोते, ज़िंदगी ही तो है

हाँ! दर्द बहुत हैं इसमें, अंजाम इसका मौत मगर
है ख़ूबसूरत ग़र देखें ग़ौर से, ज़िंदगी ही तो है

आया हूँ

सिर अपना हाँ! गँवा के आया हूँ
मैं दस्तार मगर बचा ले आया हूँ

तुम जन्नत समझते हो जिसको
मैं हक़ीक़त आज़मा के आया हूँ

मेरी ग़ज़लों की ख़ुशबू कहती है
मैं आज कू-ए-जाना से आया हूँ

डरता हूँ कोई उसे पहचान ना ले
मैं जो इक चेहरा छुपा के आया हूँ

मुझे मेरी अना ने आराम ना दिया
मैं जब से इस दुनिया में आया हूँ

मेरे सच पे यक़ीं कोई करे तो कैसे
मैं झूठा परचम लहरा के आया हूँ

दिखाओ मुझे

सब्ज़ बाग़ उम्मीद के और ना दिखाओ मुझे
जाने वाले अपनी आँख से भी गिराओ मुझे

बेरुख़ी पे तुम्हारी, दिल मेरा यूँ भी छलनी है
सरे-बज़्म मुस्कुरा के और ना सताओ मुझे

मेरे पैरों में हैं कितनी बेड़ियाँ ज़िम्मेदारी की
मंज़िलों तुम ही बढ़ो, गले से लगाओ मुझे

मैं खो गया हूँ, अब और आवाज़ ना देना मुझे
यही बेहतर है शायद अब भूल जाओ मुझे

मैं तुमसे नहीं, ज़माने से ख़फ़ा हूँ मेरी जाँ
मगर चाहता हूँ फिर भी तुम मनाओ मुझे

कोई जब से चला गया

शहर सुनसान पड़ा है, कोई जब से चला गया
हर रास्ता डरा डरा है, कोई जब से चला गया

यूँ तो डालों पर उसकी कितने ही परिंदे बैठे हैं
शजर तनहा खड़ा है, कोई जब से चला गया

नदी चुप सी रहती है, हवा भी चलती है मद्धम
गुलों का रंग उड़ा है, कोई जब से चला गया

महफ़िल में जी घबराता है, तन्हाई में आँसू आते हैं
ये मुझे क्या हुआ है, कोई जब से चला गया

उसकी हँसी गूँजती है इन वीरानों में आज भी
मगर ये घर रोता है, कोई जब से चला गया

हर गली में, हर दिल में, यारों की हर महफ़िल में
देखो उसका चर्चा है, कोई जब से चला गया

उसकी आमद से जैसे कई दीप जला करते थे
हर दिल बुझा बुझा है, कोई जब से चला गया

शे’र

अब हमें हर अपने पराए से डर लगता है
धूप इतनी है अपने साये से डर लगता है

लम्बी उदास शाम

हर रोज़ उतर आती है लम्बी उदास शाम
कई रंगों में नहाती है लम्बी उदास शाम

जिन परिंदों का नहीं ठिकाना कोई, उन्हें
आग़ोश में सुलाती है लम्बी उदास शाम

कटेगी कैसे तुम ही बताओ, बिन तुम्हारे
मुझे रास नहीं आती है लम्बी उदास शाम

प्याली चाय की कब की ठंडी हो चली
आँखों में थरथराती है लम्बी उदास शाम

हर नया दिन एक नई धुन लेके आता है
पुराने गीत सुनाती है लम्बी उदास शाम

जिन्हें हम भूलना चाहें माज़ी के वही पल
देखो याद दिलाती है लम्बी उदास शाम

दुनिया से तो लड़ता रहता हूँ मैं दिन भर
मुझे खुद से डराती है लम्बी उदास शाम

जो पल कटे अच्छे थे, ना कटे वो भी अच्छे
अब पर्दा गिराती है लम्बी उदास शाम

क्या हूँ मैं

सितारा हूँ कोई चाँद हूँ या रात हूँ मैं
अपने तसव्वुर में एक कायनात हूँ मैं

लड़ता रहा उम्र भर अपने आप से मैं
अपनी ही ज़ात के सौ सानेहात हूँ मैं

मेरा यक़ीन मानो मेरा यक़ीं ना करना
रास्ता नहीं हूँ एक पुल-सिरात हूँ मैं

उम्मीदें हैं बहुत मेरे घरवालों को मुझसे
तुम भले ही कहो कि वाहियात हूँ मैं

इतनी आसानी से मुझे समझोगे कैसे
फ़क़त शेर नहीं हूँ कुल्लियात हूँ मैं

मर कर भी ना मिलेगा चैन मुझको यारों
एक जिस्म में दफ़्न सौ ख़्वाहिशात हूँ मैं

मैं

अपनी तक़दीर से ही मात खा रहा हूँ मैं
अपनी लकीरों पे फिर झुंझला रहा हूँ मैं

मुझे यक़ीं है तुझे ख़ुशी होगी इसे सुनके
तेरी कहानी है जो आज सुना रहा हूँ मैं

तू पूछता है बाद तेरे मेरा हाल कैसा है
किस मुँह से कहूँ कि जिए जा रहा हूँ मैं

ज़रा सी चोट लगती है टूट जाते हैं लोग
यहाँ रेज़ा रेज़ा हो के मुस्कुरा रहा हूँ मैं

तुमसे कोई शिकवा करूँ भी तो कैसे करूँ
सो ख़ुद को ही सज़ा दिए जा रहा हूँ मैं

अंदेशा था मुझे अपनी नाकामयाबी का
मगर कोशिश फिर भी करता रहा हूँ मैं

आज मिले हैं पहली बार मगर लगता है
किसी ख़्वाब में ज़रूर तेरे पास रहा हूँ मैं

शाम गिर रही है, पंछी लौट रहे हैं ‘ओझल’
एक भूली हुई ग़ज़ल गुनगुना रहा हूँ मैं

लोग

कैसे इतने शिकवों का बोझ उठा पाते हैं लोग
बरसों के रिश्ते पल भर में तोड़ जाते हैं लोग

अपने घर की गिरती हुई दीवारों से बेख़बर हैं
दूसरों के उतरते रोगन पे तंज़ करे जाते हैं लोग

समझाते हैं ज़िंदगी के फ़लसफ़े एक दूजे को
ख़ुद इक छोटी सी चोट पे बिखर जाते हैं लोग

व्रत त्योहार, तीरथ करते, मंदिर मस्जिद जाते
भीख माँगते बच्चों पे तरस नहीं खाते हैं लोग

अपनी ज़हानत का दावा करते फिरते हैं मगर
नेता-बाबा के चक्कर में फँस ही जाते हैं लोग

देखे हैं कई हज़ार, मैंने परखे भी बहुत हैं मगर
‘ओझल’ सच बोलूँ समझ में नहीं आते हैं लोग