रोज़ाना नयी महफ़िलें सजाता है

वो रोज़ाना नयी महफ़िलें सजाता है
यक़ीनन तनहाइयों में सोग मनाता है

उससे कहो इतनी बेचैनी अच्छी नहीं
हर रात मेरे ख़्वाबों में आता-जाता है

एक वो ज़माना था दोपहर भर सोते थे
अब तो ये मुआ चाँद रातभर जगाता है

मेरे आँसुओं की रंगत ही दिखायी देती है
जब अपनी अंगुश्त-ए-हिनाई दिखाता है

ये अफ़वाह है झूठी वो भूल गया हमको
सुना है वो आज भी हमारी ग़ज़लें गाता है

अपनी झूठी तहरीरें कहलाता है मुझसे
और मेरी तारीख़ को भी झूठ बताता है

कल तक मुलाजमत के करता था दावे
जो आज ख़ुद को शहंशाह बतलाता है

सारे जहाँ का दर्द जिसके शेरों में हो
एक बस वो ही ‘ओझल’ कहलाता है

चाँद-तारे हमारे रतजगों को जानते हैं

चाँद-तारे हमारे रतजगों को जानते हैं
जुगनू हमारी सुर्ख़ आँखें पहचानते हैं

एक उम्र गुज़ारी है तुम्हारी यादों के सहारे
जैसे सुकून-ए-दिल पे ख़ंजर तानते हैं

सुना है इस दुनिया का कोई और खुदा है
हम हैं नादाँ कि मुहब्बत को खुदा मानते हैं

उकता गए है दिल की अफ़्सुर्दगी से ‘ओझल’
चलो गर्म सहराओं की ख़ाक छानते हैं

दबे पाँव फिर चली आती है रात

दबे पाँव फिर चली आती है रात
मीठी लोरियाँ गुनगुनाती है रात

तुम साथ नहीं हो मगर फिर भी
तुम्हारी यादों से बहलाती है रात

फिर कोई ख़्वाब चुभने लगा इनमें
फिर आँखों में भरी जाती है रात

सितारे भी लजाते फिरते हैं जैसे
उसके चेहरे पे मुस्कुराती है रात

ग़ौर से सुनोगे तो महसूस होगा
एक भूली दास्ताँ सुनाती है रात

ये कैसी हिजरत है ये कैसा वस्ल
सुब्ह होते ही ढल जाती है रात

सितारों के लश्कर साथ होते हैं
मगर फिर भी हार जाती है रात

अपनी करतूतों पे शर्मिंदा हो जैसे
यूँ अंधेरों में मुँह छुपाती है रात

मुझे अपनी क़िस्मत जैसी लगती है
जब तनहा कंपकंपाती है रात

कोई चिराग़ फिर मुस्कुराता है
फिर ज़रा बहल जाती है रात

कुछ ऐसे अपनी तक़दीर निखार लेता हूँ

कुछ ऐसे अपनी तक़दीर निखार लेता हूँ
इश्क़ से चंद नाकामियाँ उधार लेता हूँ

तुम्हारी यादों के जलते हुए जुगनुओं से
अपनी तारीक सी रातें सँवार लेता हूँ

तुम्हें पाने की ख़्वाहिश नहीं रही बाक़ी
हाँ! ख़्वाब में चुपके चुपके निहार लेता हूँ

इस उजड़े हुए दयार में ख़ुशबू के लिए
चन्द सूखी हुई कलियाँ बुहार लेता हूँ

तुम्हारी ज़ुल्मतें मुझे क्या डराएँगीं ‘ओझल’
मैं वक़्त-ए-मुसीबत माँ को पुकार लेता हूँ

एक कोहरा घना सा है जहाँ मैं हूँ

एक कोहरा घना सा है जहाँ मैं हूँ
चारों ओर परछाइयाँ हैं जहाँ मैं हूँ

मैंने ख़ुद को जला के कभी रौशनी बिखेरी थी
अब एक तारीक अँधेरा है जहाँ मैं हूँ

तमाम उम्र तुम्हारे वादे पे ऐतबार किया
ये फ़रेब अब भी जवाँ है जहाँ मैं हूँ

लफ़्ज़ों में जिसे बयाँ कोई कर ना सकेगा
एक ख़ूँख़ार दास्ताँ है जहाँ मैं हूँ

ख़ुद को महफ़ूज़ रखने का इरादा किया मैंने
अब हर ज़ख़्म नया है जहाँ मैं हूँ

एक ज़माने से उसकी कोई ख़बर नहीं ‘ओझल’
क्या मुझको ढूँढ रहा है जहाँ मैं हूँ

तुमने बड़ी आसानी से कह दी दिल की बात

तुमने बड़ी आसानी से कह दी दिल की बात
मुझे ख़ुद को देर तक समझाना बहुत पड़ा

उसने एक नज़र भर के देखा था मुझे यूँ ही
मुझे ख़ुद से मिलने दूर जाना बहुत पड़ा

आज बारिश में भीगती देखी फिर मुहब्बत
मुझे ख़त उसके पढ़के जलाना बहुत पड़ा

मेरी माँ की दुआएँ चली उम्र भर मेरे साथ
दो जहाँ ख़रीदने को ये ख़ज़ाना बहुत पड़ा

‘ओझल’ इस दिल की मजबूरियाँ क्या कहिए
अश्कों को छुपाने के लिए गाना बहुत पड़ा

हमारा दिल कुछ ऐसे काम में लाया गया

हमारा दिल कुछ ऐसे काम में लाया गया
इक दिया बार-बार जलाया गया बुझाया गया

शहर में आग लगी थी तो ये लाज़िमी था
एक मक़तूल को ज़िम्मेदार ठहराया गया

इन सियासी झगड़ों से आखिर क्या निकला
सरहद पे कुछ और जवानों का खूं बहाया गया

तुम्हारे हसीं ख़्वाबों की तामील के लिए
मसीहा को फिर एक बार सूली पे चढ़ाया गया

चाँद सितारे नहीं ना सही

चाँद सितारे नहीं ना सही
कुछ सहारे नहीं ना सही

मैं तुम्हारी हर अदा को चाहूँ
तुम हमारे नहीं ना सही

नींद तो रोज़ ही आ जाती है
साथ तुम्हारे नहीं ना सही

समन्दर के थपेड़े तो हमारे हैं
साथ किनारे नहीं ना सही

मैं ये नहीं कहता…

मैं ये नहीं कहता कि सब मेरी सुने, मेरी करें
लेकिन ज़रा सी मुरव्वत तो मेरे हक़ में हो

तुम्हारे बेरूखियाँ सभी सर आँखों पे लेकिन
एक छोटी सी मुस्कुराहट तो मेरे हक़ में हो

हर तरफ़ है ज़ोर तुम्हारी कामयाबियों का
मेरी कमज़ोरियों की ताक़त तो मेरे हक़ में हो

तुम जिस हाल में रखो मैं ख़ुश रहूँ हरदम
अरे! मेरी अपनी हालत तो मेरे हक़ में हो

दिल्लगी, रुसवायी, दोस्ती, अदावत,
‘ओझल’ एक मुहब्बत तो मेरे हक़ में हो

अपने दिल की बर्बादी का मंज़र जवाँ देखूँ

अपने दिल की बर्बादी का मंज़र जवाँ देखूँ
भीड़ है मेरे ही दोस्तों की मैं जब जहाँ देखूँ

इतना डर लगता है अपनी वहशत से कि अब
दिल के आईनाखाने में तस्वीर-ए-जाना देखूँ

देखता हूँ गिरती दीवारों को अपने इर्द-गिर्द
गो तमन्ना मेरी भी है इक महल मैं बनता देखूँ

हमेशा देखी है तुम्हारी आँखों से ये दुनिया मैंने
अब जी चाहे किसी रोज़ कुछ तो नया देखूँ

किसी और के दर्द को समझूँ भी तो भला कैसे
अना का तक़ाज़ा है कुछ ना अपने सिवा देखूँ