मजबूरी

हम दोनों का दर्द है एक, एक सी मजबूरी है
सपने एक से होते हैं, फिर भी कितनी दूरी है

शोर भरी इस दुनिया में मेरा हासिल खामोशी
जितनी तू समझ सके, उतनी बात ज़रूरी है

लम्हा लम्हा बीता हूं मैं, रेशा रेशा उधड़ा हूं
तुझ बिन यूं जीते रहना भी कैसी माज़ूरी* है

गर चाहत से शिकवा है, रहो हज़ारों पर्दों में
देख तुम्हें धड़का है, ये दिल की बे-क़ुसूरी है

गाता फिरता गली गली देखो पागल ‘ओझल’
दीप जले हैं घर घर लेकिन चारसू बेनूरी है

* माज़ूरी = Disability; helplessness

बहुत

सुना है उसके चाहने वाले यहां हैं बहुत
सुना है वो भी मेरी तरह अकेला है बहुत

सोचा है हमने इश्क न करेंगे किसी से
सुना है दिल के खेल में झमेला है बहुत

तन्हाई में भी चली आती हैं यादें तुम्हारी
सुना है शायद इन्होंने यहां मेला है बहुत

उसको क्या खौफ़ होगा मौत का अपनी
ज़ीस्त की चोटों को जिसने झेला है बहुत

मुझे डर है ये दरिया सूख ना जाए कहीं
देखो गौर से किनारों पर गीला है बहुत

चुप्पी हमारी

कहती कुछ नहीं वैसे तो बेबाकी हमारी
सुन सको तो सब बोल देगी चुप्पी हमारी

हम दोनों की चाहत में था बस इतना फ़र्क
उसकी पहली मुहब्बत थी, आखिरी हमारी

पता चल ना जाए ज़माने भर को इस लिए
छुपा लीं हमने आंखें भीगी भीगी हमारी

रहेगी याद हमारे बाद आने वालों को यह
सर कटाया, मगर बच गई पगड़ी हमारी

दिला चुके थे यकीं कि भूल गए हैं उसको
दगा दे गई मगर यारों इक हिचकी हमारी

नहीं यकीं तो पूछ लो इन खाली बोतलों से
किस ऐश से कटी ये दिलकश दूरी हमारी

इलज़ाम आए किसी पर तड़प उठते हैं हम
क्या हज़ार तिनकों से बनी है दाढ़ी हमारी

जिसको रक्खा हमने रखवाली के वास्ते
वही चौकीदार चुरा ले गया बकरी हमारी

लोगों

बात बात में यूं ही न बात बढ़ाओ लोगों
जो खफ़ा हो उसकी भी खैर मनाओ लोगों

रहे दुश्मन ज़माना, रहो अटल उसूलों पर
करो दोस्ती तो दोस्तों पर जाँ लुटाओ लोगों

तुम हो आईना, फिर किस खौफ़ से चुप हो
गर राजा है नंगा तो सबको बताओ लोगों

मुहब्बत एकतरफा हो तो भी मुहब्बत है
करो तो फिर शिद्दत से इसे निभाओ लोगों

तुम्हारी पुकार पर कोई अब आए न आए
मत रुको, अकेले ही कदम बढ़ाओ लोगों

सावन में गुलशन का मज़ा लूटा बहुत तुमने
अब बारी है तुम्हारी इक पेड़ लगाओ लोगों

कहते फिरते हो आए हो गंगा किनारे से
लगी है आग दुनिया में इसे बुझाओ लोगों

इस शहर में महव-ए-ख़्वाब है हर शख्स
बजा नगाड़े सबको आज जगाओ लोगों

चला जाऊंगा

चला जाऊंगा शोर मचाए बिना
बिन पुकारे तुम्हे जाऊंगा
छोड़ जाऊंगा कुछ अधूरी कविताएं
कुछ किताबें अनपढ़ी
यादों में एक अस्फुट तस्वीर
और आंखों के कोरों से झांकता एक कतरा

चाहे जितना समेटो मुझे
हाथ न आऊंगा मैं
पुकारो जितना भी
वापिस न आऊंगा मैं
जाऊंगा जैसे पंचमी पर जाता है शिशिर
जैसे अमावस पर चांद
जैसे ऑफिस से जाता है कोई देर रात
जैसे रेगिस्तान से जाता है समंदर

जितनी कमी होती है
पानी में आग की
या आग में नेह की
जितनी रिक्तता भरता है चांद
धरती की
या छोड़ जाता है गेंहू खेत में
बस उतनी ही कमी छोड़ के
तुम्हारे जीवन में
चला जाऊंगा मैं

नए ख़्वाब

नए ख़्वाब इन आंखों में अब सजाने तो दे
ये चिराग आखिरी भी मुझे बुझाने तो दे

मैं शिकायत भी करूं तो किससे आखिर
तू किसी तौर लफ्जों को मचल जाने तो दे

बाद तेरे तेरी उम्मीद भी जाती ही रहेगी
झूठे वादे ही सही दिल को बहलाने तो दे

अब कुछ और न मांगेगा ये दीवाना तेरा
प्यासे होठों को इक बोसा इसी बहाने तो दे

है कसम तुझको तेरी झील सी आंखों की
अपनी बाहों में फिर से बहक जाने तो दे

मुझे पता है मदद को उठेंगे हाथ कई
मेरी कश्ती को नाखुदा, डूब जाने तो दे

ये वक्त

ये वक्त
जो तुम्हारे लिए
नए हसीन सपने बुन रहा है
धीमे धीमे तुम्हारे आज को
कल में बदल रहा है
इस पर एतबार न करना
ये छलिया तुम्हें
फिर उसी पुराने अंदाज़ से छल रहा है

ये वक्त
जो तुम्हारी नसों में पल रहा है
तुम्हारी धमनियों में बह रहा है
इस पर मान ना करना
ये पल पल रिसता हुआ
तुमसे होता हुआ गुज़र रहा है
तुम्हें इस्तेमाल कर रहा है

ये वक्त
जिसकी चाप सुन रहे हो तुम
जिसकी आगोश में जकड़े हो तुम
आज कहता है तुमसे
मैं खुद नहीं बीत रहा
मुझमें पल पल, कण कण बीत रहे हो तुम

पेड़ काटो

साहेब ने शहर के बाहर
बड़ी झील के किनारे
एक फॉर्महाउस लिया है।

हां! वहां तक पहुंचने में
पूरा घंटा खर्च हो जाता है।
सड़क बहुत संकरी है
एक बार में सिर्फ़ दो ट्रक निकल पाते हैं।

सड़क किनारे
विकास में रोड़े अटकाए
आवाजाही में असुविधा पैदा करते
कितने पुराने बरगद
कितनी सारी ज़मीन घेरे बैठे हैं।

साहेब का कहना है कि
सरकार को इस विषय में गौर करना चाहिए।
इन में से कुछ अगर काट दिए जाएं
ज़्यादा नहीं, यही कोई सौ, सवा सौ
कम से कम दस मिनट बच सकेंगे
दस बहुमूल्य मिनट।

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