कहना उसे

उससे मिलना तो कहना उसे
अब मैं ज़िम्मेदारी से जीना सीख गया हूँ
ऑफ़िस में लोग ख़ुश रहने लगे हैं
बात बात पे चिड़चिड़ाता नहीं हूँ अब
मुहल्ले के बच्चों की बॉल गर आँगन में आ गिरे
वापस कर देता हूँ, चिल्लाता नहीं हूँ अब।

उससे मिलना तो कहना उसे
पुराने गीत फिर से गुनगुनाने लगा हूँ
थोड़ा मीठा कम खाने लगा हूँ
शाम का खाना ख़ुद पकाने लगा हूँ
कभी कभी मॉर्निंग वॉक पे भी जाने लगा हूँ
अब मैं बड़ा हो गया हूँ।

उससे मिलना तो कहना उसे
अब मैं दिन दिन भर कवितायें नहीं लिखता
बिना किसी बात के हँसता-रोता नहीं हूँ मैं
रात रात भर अब नहीं जागता हूँ
उसका नाम सुनके नहीं चौंकता हूँ मैं
उसके ख़्याल से कोई दर्द नहीं होता मुझे।

उससे मिलना तो कहना उसे
अब मैं उसे भूलने सा लगा हूँ
फिर ज़रा-ज़रा जीने लगा हूँ मैं
उससे मिलना तो ये भी कहना
अब झूठ बहुत बोलने लगा हूँ मैं।

 

कुछ तो बता

यार मेरे! छुपा है कहाँ, कुछ तो बता, कुछ तो बता
वीराँ जंगल, गुम रस्ता, कुछ तो बता, कुछ तो बता

चांदनी आयी फिर मेरी उदास छत पे आज की रात
पूछती हुई मेरा पता, कुछ तो बता, कुछ तो बता

कहते फिरते हो मिलने पे क़यामत होगी मगर सोचो
जुदाई क़यामत नहीं क्या, कुछ तो बता, कुछ तो बता

सुना है शाह कुछ नाराज़ है आइनों से आजकल
सच बोल के क्या मिला, कुछ तो बता, कुछ तो बता

अपने ख़त में मैंने पहला लफ़्ज़ तेरे नाम का लिखा
और लिखूँ तो लिखूँ क्या, कुछ तो बता, कुछ तो बता

ये सियासत की आग लगाई जब तुमने ख़ुद-ब-ख़ुद
घर क्यूँ जला, कैसे जला, कुछ तो बता, कुछ तो बता

मेरे सवाल पे चुप है तू, शायद जवाब तवील है
पूरा नहीं कुछ तो बता, कुछ तो बता, कुछ तो बता

 

फिरता हूँ

हसीन सी एक तड़प सीने में दबाए फिरता हूँ
जाने कौन सा बोझ कांधों पे उठाए फिरता हूँ

ईनाम-ए-रूखसत-ए-बाग़-ए-बहिश्त की ख़ातिर
इक गुनाह-ए-अज़ीम माथे पे लिखाए फिरता हूँ

तुम्हारे कहे को झूठ ना समझ सके कभी कोई
सो अपने आप को ना-मो’तबर बताए फिरता हूँ

ये ख़ौफ़ है किसी तौर ना आ जाए आराम मुझे
दिल के हर कोने में तेरी याद सजाए फिरता हूँ

अपने हाथों की लकीरों से मजबूर है हर शख़्स
सो मैं भी मुट्ठी में नाकामियाँ दबाए फिरता हूँ

अब बर्दाश्त नहीं होती जुदाई पल भर की भी
इक धुँधली तस्वीर से दिल बहलाए फिरता हूँ

क्यूँ नहीं देते

जाते जाते चिराग़ बुझा क्यूँ नहीं देते
सारे हसीं ख़्वाब मिटा क्यूँ नहीं देते

रोशनी की तुमको गर इतनी हवस है
मेरा आशियाँ ही जला क्यूँ नहीं देते

क्या यक़ीनन तुम्हें बोसा नहीं पसंद?
गर इतना उज्र है तो लौटा क्यूँ नहीं देते

गर ये तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं
खत मेरे दरिया में बहा क्यूँ नहीं देते

दूर खड़े करते हो आँखों ही से इशारे
मुझे छू के मेरे होश उड़ा क्यूँ नहीं देते

अपने होंठों से छू के मेरे जाम को तुम
इक नई अफ़वाह उड़ा क्यूँ नहीं देते

 

नहीं सकते

मायूस चेहरा अपना छुपा भी नहीं सकते
क्या ग़म है किसी को बता भी नहीं सकते

कहने को तो सीने में बहुत राज़ दफ़्न हैं
मजबूर है इतने कि बता भी नहीं सकते

तेरे सामने ही बैठे हैं इसी सोच में गुम हम
क्यूँ कलेजे से तुझको लगा भी नहीं सकते

मुहाजिर जैसे रहते हैं अपने ही वतन में
हम दर्द-ए-इंतिक़ाल* जता भी नहीं सकते

क्या कहा? लकीरों का ही खेल है सारा?
तो क्या बल पेशानी पे ला भी नहीं सकते?

 

*दर्द-ए-इंतिक़ाल = pain of alienation

आज फिर…

आज फिर
शाम के खेमे में
पंछियों के कुछ लश्कर लौटते हैं।

अपने बदन की
चोटिल आकांक्षाओं के घावों से
रिसते थकान के लाल रक्त को
आँसुओं से धोते हैं
उस पर स्नेह का मरहम लगाते हैं
कथाएँ सुनते-सुनाते हैं
अपने अपने पराक्रम की
दुश्मनों की व्यूह रचना की
और अपने खेत रहे साथियों
का शोक मनाते हैं।

धीरे-धीरे रात के बिछोने
उन्हें अपने आग़ोश ले लेते हैं।

हालाँकि वे जानते हैं
कल उन्हें फिर से
दिन के कुरुक्षेत्र का
सामना करना होगा

मगर …
चिंता के अलाव
एक एक कर के
बुझते जाते हैं
और वे
नींद की गर्म चादर
ढाँक के
सो जाते हैं।

 

इक ज़रा सी लज़्ज़त-ए-दीदारी को

इक ज़रा सी लज़्ज़त-ए-दीदारी को
गँवा बैठे आज हम अपनी ख़ुद्दारी को

दुनिया के बदलते हुए तौर-तरीक़े देखे
हमने नहीं बेचा अपनी वफ़ादारी को

और क्या मिलना था हमें सुकूँ के सिवा
सो वही मिला निभा के ईमानदारी को

उसने इस बरस भी मजबूरन रोज़े रखे
घर में था ही कहाँ कुछ इफ़्तारी को

जो था राज़ आँखों ने बयान कर दिया
क्या कहें ऐसी ख़ुलूस-ए-गुफ़्तारी को

उसका घर सबसे पहले जला, मिला जवाब
क्या खूब ‘ओझल’ की शहरयारी को

 

यूँ ही

कुछ शब्द तुम लिखो, कुछ बाब मैं लिखूँगा
किताब का हर सफ़हा भर जाएगा यूँ ही
इक क़दम तुम चलो, एक मील मैं चलूँगा
ये सफ़र सदियों का कट जाएगा यूँ ही

ऐसा भी क्या मिलन, जो हों इतनी दूरियाँ
अधूरी ख़्वाहिशें, शिकायतें, मजबूरियाँ
कुछ मिसरे तुम कहो, एक ग़ज़ल मैं कहूँगा
वक़्त मुलाक़ात का कट जाएगा यूँ ही

मैं तुम्हारी बन्द चौखट पे मुरझाता गुलाब
तुम मेरी अधखुली आँखों में कोई ख़्वाब
इक हाथ तुम बढ़ाओ, पीछे ना मैं हटूँगा
ये फ़ासला जन्मों का घट जाएगा यूँ ही

 

मैंने सुना है

मैंने सुना है
किसी को ये कहते
कल तुम उससे
बहुत गर्मजोशी से मिली थी।

मैंने सुना है
वो तुम्हारे जन्मदिन पर
तुम्हारे लिए ग़ुब्बारे लाया था
गुलाबी दिल-नुमा ग़ुब्बारे
और तुम उन्हें लेते हुए मुस्कुराई थी।

मैंने सुना है
तुमने ख़ुद अपना नम्बर
उसकी कॉपी में लिखा था
और अब वो तुम्हें रोज़ सुबह
Whatsapp पर गुड मॉर्निंग बोलता है।

मैंने तो ये भी सुना है
पिछले हफ़्ते जब हमारा झगड़ा हुआ था
तुम उसके कन्धों पे सर रखके
देर देर तक रोती रहती थी
और वो तुम्हारे आँसू पोंछता था।

मैं यहाँ तक सुना है
तुम अब उससे सबके सामने
बात तक नहीं करती हो
और तुम्हारी सहेलियाँ
अब उसके नाम से तुम्हें छेड़ने लगी हैं।

मैंने और बहुत कुछ सुना है
तुम दोनों के बारे में
तुम्हारी मासूम सी सहेली से…

तो क्या मैंने सब सच ही सुना है?

जश्न कुछ यूँ मनाना यारों

जश्न मेरी मौत का कुछ यूँ मनाना यारों
दीप जलाना फूल सजाना जाम उठाना यारों

तमाम शहर ही जब दुश्मन हुआ अपना
क़िस्सा-ए-उल्फत फिर किसे सुनाना यारों

मेरी ख़ातिर कोई तोहमत ना लेना सर अपने
भीड़ में पहला पत्थर तुम्हीं उठाना यारों

जिए दोस्तों की ख़ातिर, मरे उसूलों के लिए
मेरे बच्चों को मेरी ये दास्ताँ सुनाना यारों

नफ़रत के दौर में भी सम्भाल रखी है मुहब्बत
शायद इसलिए दुश्मन है अब ज़माना यारों

ये ज़िंदगी है चार दिन, फ़क़ीर हो या शाह
वक़्त-ए-कज़ा चलेगा ना कोई बहाना यारों