एक दूजे से अनजान लोग
मेरे शहर के नादान लोग
दो पल की ज़िंदगी है मगर
जीते जैसे जाविदान लोग
वक़्त लुटाते हैं बस यूँ ही
जुटाते बहुत सामान लोग
ख़ुद को ही धोखा दे रहे हैं
जाने कितने बेईमान लोग
नसीहतें बाँटते फिरते हैं
सच्चाई से अनजान लोग
एक दूजे से अनजान लोग
मेरे शहर के नादान लोग
दो पल की ज़िंदगी है मगर
जीते जैसे जाविदान लोग
वक़्त लुटाते हैं बस यूँ ही
जुटाते बहुत सामान लोग
ख़ुद को ही धोखा दे रहे हैं
जाने कितने बेईमान लोग
नसीहतें बाँटते फिरते हैं
सच्चाई से अनजान लोग
शब इक भूला हुआ ख़्वाब फिर देखा मैंने
बाद उसके बहुत देर तक तुझे सोचा मैंने
दास्ताँ हमारी भी मिसाल-ए-इश्क़ होती
क़सम थी तुम्हारी सो कुछ ना बोला मैंने
मुझे यक़ीं है इक आवाज़ पे तुम लौट आते
मैं ज़माने में उलझा था सो ना रोका मैंने
मैं जानता था उसके सामने टूट जाऊँगा
बहुत पुकारा किया वो दर ना खोला मैंने
मैं उसके सामने बैठा उसे ही सोचता रहा
ख़यालों में उसे बारहा खोया पाया मैंने
जाने तुम किस गाँव सिधारे, सच बोलो
कब तक राह तकें तुम्हारे, सच बोलो
इक आस बंधी है जाने क्यूँ अब भी जी में
लिक्खो क्या अब भी हो हमारे, सच बोलो
चप्पू डूबे, पाल टूटी, नाविक धोखेबाज़
अब नैया लगेगी कौन किनारे, सच बोलो
तुम निर्मोही, तुम बेग़ैरत, तुम निठुर हो जी
हम ज़िद्दी बैठे तुम्हरे दुवारे, सच बोलो
नज़रें चुराते हो, बहाने बनाते हो, सच मानो
सच में बहुत ताक़त है प्यारे, सच बोलो
हाँ! ये सच है तनहा नहीं हूँ
कैसे कहूँ तुझे ढूँढता नहीं हूँ
दर-ओ-दीवार राह देखते हैं
कई दिनों से घर गया नहीं हूँ
कश्ती रही लहरों के भरोसे
साहिल पे कभी ठहरा नहीं हूँ
मैं अकेला चिराग़ था लेकिन
किसी तूफ़ाँ से सहमा नहीं हूँ
याद आ रहीं हैं आँखें तुम्हारी
कमाल है इन्हें भूला नहीं हूँ
नज़रों का छिप-छिप मिलना देख रहे हैं
जज़्बातों का गिरना-संभलना देख रहे हैं
उसकी हक़ीक़त जानते हैं हम फिर भी
चुपचाप उसका चेहरे बदलना देख रहे हैं
आग सी लगी है जंगल में, दूर नदी किनारे
कुछ भेड़िए मासूमों का जलना देख रहे हैं
शहर की तेज़ बारिश में चाय हाथ में लिए
लोगों का सड़कों पे फिसलना देख रहे हैं
ये कैसे लोग हैं जो हवाई जहाज़ में बैठे
भूखे किसानों का यूँ ही मरना देख रहे हैं
ये नेज़े निश्तर-ओ-लश्कर बदल भी सकते हैं
वक़्त बदले तो सिकंदर बदल भी सकते हैं
ये हुजूम जो तुम्हारे पीछे पीछे चल रहा है
कल इस भीड़ के तेवर बदल भी सकते हैं
अपनी तक़दीर से हार के बैठने वाले सुन
अपनी लकीरें दिलावर बदल भी सकते हैं
सच्चाई देखने के लिए आँखें चाहिए यारों
नज़र के साथ ये मंज़र बदल भी सकते हैं
ये दुनिया है चार दिन का बसेरा “ओझल”
हम ऊब गए तो ये घर बदल भी सकते हैं
ये खेल जान ले लेगा, हमें मालूम ना था
कोई बस ना चलेगा, हमें मालूम ना था
तूने हमारी दोस्ती का ख़ूब सिला दिया
तू हर वादा तोड़ेगा, हमें मालूम ना था
वक़्त-ज़रूरत मुस्कुराएगा वो और फिर
नज़र यूँ फेर लेगा, हमें मालूम ना था
नए ख़्वाब दिखा के हमारी आँखों से वो
बीनाई छीन लेगा, हमें मालूम ना था
एक हमारे जाने से किसी का ‘ओझल’
कुछ नहीं बदलेगा, हमें मालूम ना था
सदा ख़ामोशियों की, बोलो सुनता कौन है
जो ग़ज़लें मैं लिखता हूँ, जाने पढ़ता कौन है
सेहरा में सराबों को देख मैं ये सोच रहा हूँ
मेरी आँखों में भला नदियों सा बहता कौन है
मुझे धोखा हुआ था, हाँ! धोखा ही हुआ होगा
दिल की बातें आजकल दूजे से कहता कौन है
बड़े मकानों की हक़ीक़त तुमको बतलाता हूँ
सब अलग कमरों में जीते, घर में रहता कौन है
बाद-ए-सबा की फ़ितरत का नहीं क़ाइल ‘ओझल’
यूँ बेवजह ख़ुशबू सबको बाँटते फिरता कौन है
कहना तो लाज़मी है कैसे कहें
लब पे बात थमी है कैसे कहें
तुम्हारे बाद हरेक शय में जैसे
इक तुम्हारी कमी है कैसे कहें
फिर ना माँगेंगे तुमसे कुछ और
ये बोसा आख़िरी है कैसे कहें
तुम जो दूर से मुस्कुरा देते हो
जी पे क्या बीतती है कैसे कहें
ये हर शाम का इंतज़ार तुम्हारा
बड़ी उदास तीरगी है कैसे कहें
उस एक शख़्स के जाने भर से
हमपे क्या गुज़री है कैसे कहें
सच कहो क्या ये एक आदत है
या वाक़ई बड़ी मसरूफ़ियत है
ज़रूर वो उतना ही चाहते हैं हमें
आजकल अजीब सी गफ़लत है
जिसे चाहा बस उसी के हो रहे
बोलो भला ये भी कोई मुहब्बत है
क्या फिर किसी ने कोई सच कहा
आज फिर शहंशाह को दहशत है
कश्तियों को डुबोता जा रहा है
इस दरिया-ए-दिल की वहशत है