एक सुबह दिसंबर की

धुंध में उगता सूरज दे दिखाई
लाल-सफ़ेद ऊन की जैसे बुनाई
सुनाई दे मस्जिद से अज़ान और
मंदिर से तुलसीदास की चौपाई
मिले ऐसी एक सुबह दिसंबर की…

अच्छी लग रही हो धूप की नरमी
हाथों को सेंकती हो चाय की गर्मी
सामने पड़ा हो अखबार सुबह का
बताने को ज़माने की सरगर्मी
मिले ऐसी एक सुबह दिसंबर की…

सुनाई दे कॉलोनी में चारों ओर
खेलते हुए बच्चों का शोर
बागीचे में दिखते हों फूलों के बीच
खेलते पक्षी, नाचते मोर
मिले ऐसी एक सुबह दिसंबर की…

बर्तनों की आवाज़ें आ रही हो
परांठों की खुशबु ललचा रही हो
पैरों पे ताने हुए पुरानी रज़ाई
अम्मा थोड़ा सा झल्ला रही हों
मिले ऐसी एक सुबह दिसंबर की…

और पास में हो तुम मदमाती हुई सी
अपनी खुश्बू से मुझे महकाती हुई सी
याद करके प्रणय के सुखमय पलों को
मुस्कुराती हुई सी, शर्माती हुई सी
मिले ऐसी एक सुबह दिसंबर की…

 

एक ख़ामोशी

एक ख़ामोशी ही दरमियान हो जैसे
हर रिश्ते की यही पहचान हो जैसे

साक़ी हमारे प्याले ख़ाली ही रहे
तू हमारी प्यास से अनजान हो जैसे

उसकी आँखों में हैं कितने सवाल
मासूम दिल का इम्तिहान हो जैसे

आज फिर शाम ढले टूटता है बदन
एक लम्बे सफ़र की थकान हो जैसे

मेरी ग़ज़लों पे क्यूँ हुईं आँखें नम
कोई आपकी ही दास्तान हो जैसे

सज़ा तो यूँ मिली उस बेगुनाह को
उसका कोई सच्चा बयान हो जैसे

नज़रें जो मिलीं तो मुस्कुराये ऐसे
आज भी हम पे मेहरबान हो जैसे

ज़रा सी चोट से मिसमार जो हुआ
ये दिल काँच का मकान हो जैसे

बहुत देर तक वो मुझे देखता रहा
मेरी बेवफ़ाई का गुमान हो जैसे

हाकिम-ए-शहर को सजदे तो यूँ
सुबह की पहली अज़ान हो जैसे

 

एक आस

थे मेरे साथ …
एक आस
दूर मंदिर की घंटियों सी
एक प्यास
सराबों को मुँह चिढ़ाती हुई
एक आग
बदन के ज्वालामुखी में
एक दर्द
खला को मात देता हुआ

और अब…
एक याद
ख़्वाबों के उजालों सी
एक ख़ुशबू
रेगिस्तान में फुहारों सी
एक स्पर्श
अक्टूबर की सिहरन सा
एक ही ख़याल
शायद कहीं फिर कभी तुम …

 

महफ़िल में तनहा

महफ़िल में ख़ुद को तनहा पाया मैंने
तनहाई में भी दिल ख़ूब लगाया मैंने

अश्क़ बहुत थे मेरी आँखों में लेकिन
सिर्फ़ हँसता हुआ चेहरा दिखाया मैंने

ज़िंदगी की एक और चोट जानकर
मौत को भी कलेजे से लगाया मैंने

मेरी तारीक रातों का चर्चा क्यूँकर
तुम्हारी राहों में तो दीप जलाया मैंने

अपने ग़मों को ग़ज़लों की सूरत देके
ज़माने का ख़ूब दिल बहलाया मैंने

तुम्हारी यादों के चिराग़ों को अक्सर
ख़्वाबों में जगमगाता हुआ पाया मैंने

 

लो एक और दिन बीत गया

लो एक और दिन बीत गया

कई काम थे जो करने थे
कई लोगों से मिलना था
कुछ से मैं नहीं मिला
कुछ मुझसे नहीं मिले
लो फिर एक दिन बीत गया

बहुत सी चीजें समेटनी थीं
कुछ अन्ततः फैली ही रह गयीं
कुछ बेचना था
कुछ खरीदना था
कुछ बिका नहीं
कुछ मिला नहीं
आज फिर एक और दिन बीत गया

दुनिया चलती रही
अनवरत अविरल
मैं ठिठका रहा
खुद को सहेजता रहा
कुछ सोचता रहा
दिन भर खर्च होता रहा
लो आज का दिन भी बीत गया

तुमको देखे बिना
तुमको सोचे बिना
तुम्हारी गंध से दूर रहा
तुम्हारी याद भी आयी नहीं
लो, आज एक और दिन…

 

आईना ही झूठा दिखाई दे

आईना ही झूठा दिखाई दे
मेरे अक्स में दूसरा दिखाई दे

पुरानी आँखों से ये जहाँ भला
रोज़ कैसे नया सा दिखाई दे

सराबों से नज़रें बचाने वाले को
हक़ीक़त-ए-सहरा दिखाई दे

ये कैसी जिद्द कि मेरा खुदा भी
मेरी तरह ही तनहा दिखाई दे

तू ही नाखुदा है मेरा और तेरी
आँखों में ही दरिया दिखाई दे

बन्द आँखों के पीछे से वो भी
शायद मुझे देखता दिखाई दे

ढूँढता फिरता है ‘ओझल’ कि
कोई तो उसके जैसा दिखाई दे

 

जब आओगे

शाम से ही सज संवर के
बैठी मैं सोच रही कब से
नयनों में सपने मिलन के
मृदु प्रणय के आलिंगन के
आज रात प्रेम! तुम मिलने
क्या आओगे?

गलियां सारी सोई-सोई सी
रात भी है खोयी-खोयी सी
जी में रह-रह हूक उठती
साँसें भी हैं रूकती-रूकती
किससे पूछूं नाथ! तुम मिलने
कब आओगे?

मन मेरे है अवसाद भरा
है सूना अम्बर व्यर्थ धरा
अविरल बहती अश्रु धारा
लो प्राण-पंछी भी उड़ चला
कुछ तो कहो ओ निठुर! मिलने
कब आओगे|

सुनो! तुम दबे पाँव आना
कोई कुण्डी ना खड़काना
अपने उर से मुझे लगाना
माथे पे चुम्बन दे जाना
देर-सवेर जान! मुझसे मिलने
जब आओगे|

 

शाम कोई और रंग दिखाएगी

क्या आज भी यूँ ही ढल जाएगी
या शाम कोई और रंग दिखाएगी

वो मेरी बाहों में है उसे ख़बर नहीं
थोड़ी देर में कितना कसमसाएगी

इसी उम्मीद पे इक उम्र गुज़ारी है
कभी तो उन्हें याद हमारी आएगी

मेरी तारीक रातों में ख़ुशबू तुम्हारी
एक जुगनू की तरह जगमगाएगी

वैसे तो उसकी वफ़ा पे यक़ीं है हमें
मजबूरी-ए-हयात बेवफ़ा बनाएगी

इससे बचके रहना ये दिल की आग
जो बढ़ गयी तो दुनिया जलाएगी

मेरे सामने ना आना खुदा के लिए
इक अफ़वाह शहर भर में जाएगी

तुझे कैसे बताऊँ मेरे महबूब-ए-नादाँ
ये प्यास बोसों से और बढ़ जाएगी

 

नाम तुम्हारा

बिस्तर की सिलवट नाम लेती हैं तुम्हारा
मेरी हर बेचैन करवट नाम लेती है तुम्हारा

मालूम है तुम अब ना आओगे लौट के
रात गए हर आहट नाम लेती है तुम्हारा

आईना ख़ूबसूरत सा लगने लगा है मुझे
हरेक मुस्कुराहट नाम लेती है तुम्हारा

मेरी रातें रोशन हैं तो तुम्हारे ही नाम से
तारों की जगमगाहट नाम लेती है तुम्हारा

 

फ़िराक़ से ना विसाल से

मतलब है तेरे फ़िराक़ से ना विसाल से
मक़सूद है जी को सिर्फ़ तेरे ख़याल से

सरे-महफ़िल उस शोख़ की बेरुख़ी देखके
दिल में उठते रहे जाने कितने सवाल से

वक़्त जुदाई का चलता ही रहा बेसाख़्ता
हर लम्हा बीता यक़ीं मानो जैसे साल से

यूँ तो हमको तुमसे कोई गिला नहीं जानाँ
जाने क्यूँ फिर भी जी में आते हैं मलाल से

घर-आँगन में हमारे तीरगी फिर ठहरी नहीं
रोशनी ऐसी बिखरी कुछ उसके जमाल से

बादशाहों के नसीब में दौलत कहाँ ‘ओझल’
जो बिखरी फ़क़ीर के दस्त-ए-कमाल से