सो जाओ

मेरे सीने पे सर रखो और सो जाओ
इक ऐसी हसीं रात मुझे देते जाओ

ज़माने भर के ग़म यूँ मुझे दो जानाँ
बस मुझे देख के इक बार मुस्कुराओ

इन्तज़ार का ईनाम दो मेरी बाँहों को
आज तुम इनमें देर तक कसमसाओ

सात जन्म कौन निभाता है अब यहाँ
चलो पल भर के लिए मेरी हो जाओ

उसकी मौत उसे पैग़म्बर बना देगी
‘ओझल’ के हौसले मत आज़माओ

 

शाम उतरती है

शाम उतरती है
पेड़ों की शाख़ों से
दबे पाँव झिझकती हुई
नदी के किनारों पे
थोड़ी उछलती हुई
पहाड़ी ढलानों से
ज़रा सा फिसलती हुई।

सुनाई देती हैं आवाज़ें
घर लौटते हुए
थके हुए पंछियों की
पार्क में खेलते
छोटे बच्चों की
पड़ोस में नोंक-झोंक करते
नव-विवाहित जोड़े की
रसोई में छनकते
छोटे-बड़े बर्तनों की।

आज का दिन भी गया
ज़िंदगी से जूझते हुए
ख़ुद से लड़ते हुए
ज़र्रा-ज़र्रा बिखरते हुए
क़तरा-क़तरा समेटते हुए।

बाल्कनी में बैठे हुए वो
कॉफ़ी के प्याले को
अपने होंठों तक लाता है
फिर बिना पिए ही
रुक सा जाता है।

शायद दिन भर की
समेटी हुई कड़वाहट
कॉफ़ी से मिटेगी नहीं
सहेजी हुई ये झुँझलाहट
आसानी से घटेगी नहीं
असफलता की बौखलाहट
दिल से हटेगी नहीं
ये लंबी उदास शाम
शायद यूँ कटेगी नहीं।

लम्बे क़दम बढ़ाती हुई
तेज़ी से दौड़ती हुई
अपने डैने फैलाती हुई
उसकी हार पे हँसती हुई
कटाक्ष से मुस्कुराती हुई
एक बार फिर उतरती है
शाम…

 

क्या बताऊँ तुम्हें किस क़दर तनहा हूँ

क्या बताऊँ तुम्हें किस क़दर तनहा हूँ
धूल का एक झोंका हूँ ज़मीं से जुदा हूँ
 
दिल-ए-सोगवार की मजबूरियाँ ना पूछ
एक दरिया था जो सुखाए बैठा हूँ
 
प्यार में दुनिया को भुलाना है बहुत आसाँ
मैं तो तुम्हारी याद भी भुलाये बैठा हूँ
 
कभी था इश्क़ इन रानाइयों से मुझे भी लेकिन
अब तो हर हसीं मंज़र से उकता गया हूँ
 
मेरे बदन की कबा में मुझे ढूँढता है क्यूँ
मैं तो कब का यहाँ से जा चुका हूँ

शब-ए-हिजराँ

शब-ए-हिजराँ कुछ ऐसे बिताते हैं हम
तुम्हारे क़िस्से ख़ुद को सुनाते हैं हम
 
तुम मिले हो तो होश ही नहीं हमें
तुम्हारी ग़ज़लें तुम्हीं को सुनाते हैं हम
 
वक़्त की मजबूरियाँ, ज़माने का डर
आओ कुछ नए बहाने बनाते हैं हम
 
कभी-कभी उनसे आँखें चार होती हैं
फिर महफ़िल से नज़रें चुराते हैं हम
 
तनहाइयों में बज उठते हैं तार यादों के
फिर बहुत देर तक गुनगुनाते हैं हम
 
ये इल्म की बातें, ये किताबें अदब की
क्या जानो दिल को कैसे बहलाते हैं हम
 
इन आँसुओं पे ना जाओ, ये तो झूटे हैं
यक़ीं मानो अब भी मुस्कुराते हैं हम
 
तुम्हें अपनी ग़ज़लों में उतारते हैं यानी
अपनी रुसवायी का सामाँ बनाते हैं हम
 
तस्वीरें बनाते हैं, ग़ज़ल लिखते हैं ‘ओझल’
देखो एक शख़्स को कैसे भुलाते हैं हम

और कुछ भी नहीं

शायद हमारे दरमियाँ और कुछ भी नहीं
एक दश्त-ए-बियाबाँ और कुछ भी नहीं
 
कल हसीन ख़्वाब थे विसाल के यहाँ
आज बिखरे हुए अरमाँ और कुछ भी नहीं
 
कुछ पल के लिए तेरे शानों पे फैली थीं
मेरी ज़ुल्फ़-ए-परीशाँ और कुछ भी नहीं
 
सागर-ओ-खुम हैं उलटे, साज़ भी चुप हैं
दिल बहलाने का सामाँ और कुछ भी नहीं
 
कश्ती-ए-हयात की हक़ीक़त है तो बस
मुसलसल बर्क़-ओ-तूफ़ाँ और कुछ भी नहीं
 
तेरी यादों की चाँदनी फैली है आँगन में
ऐसी हसीं शाम-ए-हिज्राँ और कुछ भी नहीं
 
इसकी तपिश से जल जाएगा जहाँ सारा
मेरा दर्द-ए-दिल मेरी जाँ और कुछ भी नहीं
 

नहीं होता

ना जाने क्यों हर रिश्ता मो’तबर नहीं होता
मकाँ तो सब बनाते हैं, सबका घर नहीं होता
 
सिकंदर होने के लिए लश्कर ज़रूरी है मगर
लश्कर के होने से कोई सिकंदर नहीं होता
 
मुश्किल रास्तों पे जो साथ दे उसे दोस्त मानो
हर शरीक-ए-मंज़िल हमसफ़र नहीं होता
 
कलेजे से लगाना पड़ता है अपने दुश्मनों को भी
सूली पे लटका हर शख्स पयम्बर नहीं होता
 
नशा ताक़त का इंसान को भुला देता है ये सच
इंसान का वक़्त हमेशा बराबर नहीं होता
 
आमद से जिसके हर महफ़िल जगमगा उठे
हर इंसान के पास तो ऐसा हुनर नहीं होता
 
कुछ तो साज़िश होती है लकीरों की भी इसमें
सीपी में दबा हर ज़र्रा क्यूँ गुहर नहीं होता
 
हिम्मत, मेहनत और जुनून सब चाहिए वरना
तुम्हारे हज़ार सजदों में असर नहीं होता
 
कोई फरहाद ही ज़िम्मा लेता है कोह-कनी का
हर किसी के पास ऐसा जिगर नहीं होता
 

इन्तज़ार तुम्हारा है

तारों से सजी है ये रात, इन्तज़ार तुम्हारा है
मन में दबी हुई एक बात, इन्तज़ार तुम्हारा है
 
बाहर टपकती है शबनम, अंदर मेरे आँसू
मौसम ने भी लगायी घात, इन्तज़ार तुम्हारा है
 
वादा था कि आओगे बारिश के मौसम में
आज बिन मौसम बरसात, इन्तज़ार तुम्हारा है
 
मेरे हाथों की मेहन्दी की पुकार सुनो जानाँ
आँगन तक आ गयी बारात, इन्तज़ार तुम्हारा है
 
मेरे सपने लेते गए साथ अपने तुम परदेस
वापस ले आओ ये सौग़ात, इन्तज़ार तुम्हारा है

Umr-kya-aise

उम्र क्या ऐसे ही बसर होगी
हर दुआ यूँ ही बेअसर होंगी

जितना तवील इन्तज़ार-ए-वस्ल
मुलाक़ात उतनी मुख़्तसर होगी

बेचैनियों की वजह है जो मेरी
यक़ीनन इनसे बेख़बर होगी

मेरी यादों को सिलाइयाँ बना
ख़्वाबों के बुन रही स्वेटर होगी

छत पे चहलक़दमी में उसकी
आज चाँदनी भी हमसफ़र होगी

नींद को तरसते हैं ख़्वाब मेरे
बड़ी तारीक कल सहर होगी

रात कटती नहीं जुदाई की ‘ओझल’
एक उम्र भला कैसे बसर होगी

रिश्तों का स्वाद

ये रिश्ते भी ना अजीब होते हैं
अलग-अलग स्वादों में मिलते हैं

बचपन के रिश्ते मीठे होते थे
मैं गुड्डू के घर सुबह से शाम तक खेला करता था
आंटी के हाथों से खिचड़ी खाया करता था
गुड्डू ग़ुस्सा तो होता था, पैर पटकता था
लेकिन फिर हँस के कहता था
“ठीक है! पहले तू बैटिंग कर ले”

गरमी की छुट्टियों में जब नानी के घर जाते थे
मामा के दोस्तों के साथ पतंगे उड़ाते थे
पड़ोस वाली दादी के साथ घंटो गप्पें लड़ाते थे
चौराहे वाले हरिया हलवाई से
समोसों के साथ जलेबियाँ फ़्री पाते थे

कॉलेज के रिश्ते थोड़े चटपटे थे
मेस में थी हमारी स्पेशल टेबल
लेकिन राज था तो मुन्ना महाराज का
“चुपचाप करेले खाइए। अच्छे होते हैं”
सचिन पुरानी शर्ट पे छेड़ता था
फिर कहता था
“साले! डेट पे जा रहा है? मेरी ले जा”
रोहन की ठंडाई में चुपके से भांग मिलाते थे
देर रात एक दूसरे को हॉरर स्टोरी सुनाते थे
और कभी-कभी… ख़ुद ही डर जाते थे

अधेड़ उम्र में रिश्तों के आयाम बदलते हैं
गली की लँगड़ी कुतिया जो दूर से दुम हिलाती है
चौराहे पे बूढ़ी भिखारन तुम्हें देख के मुसकाती है
एक कोयल जो बेवजह तुम्हारी छत पे गाती है
जगजीत की ग़ज़लें जो आज भी तुम्हें छेड़ जाती है
पत्नी रसोई में कोई पुराना गीत गुनगुनाती है
तुम्हारी बेटी जब ज़िद करती है, इठलाती है
ज़िंदगी तुम्हारी नमकीन हो जाती है

एक और स्वाद होता है रिश्तों का
वो पुरानी डायरी में दबा मोरपंख
मेज़ की दराज़ में तुम्हारा भूला हुआ ख़त
किसी का दिया हुआ वो मिक्सटेप
बारिश में उठती हुई वो मिट्टी की ख़ुशबू
पेड़ की छाल पे वो धुँधलाता हुआ नाम
ये रिश्ते तीखे होते हैं
जो आपके अधूरेपन का अहसास दिलाते हैं
आपकी भूख और बढ़ाते हैं
ज़ुबान पे एक टीस छोड़ जाते हैं

 

एक शाम और मैं

लो फिर एक शाम घिर आयी है, और मैं हूँ
दिन भर की थकन की कमाई है, और मैं हूँ

ये किसने कहा कि तुम बिन घबराता है जी
हज़ार ग़म हैं, मय है, तन्हाई है, और मैं हूँ

बहुत ढूँढा मगर नज़र ना आया वो चिराग़
एक सियाह रात की खाई है, और मैं हूँ

वहाँ तुम्हें शोहरत की सौ बुलंदियाँ मुबारक
यहाँ एक सुनसान तनहायी है, और मैं हूँ

उजाले उसकी यादों के कुछ तो काम आएँगे
आज फिर बदली सी छायी है, और मैं हूँ

फिर चला आया है तुम्हारी यादों का कारवाँ
जनवरी की सर्द रात है, रज़ाई है और मैं हूँ

किसे मालूम था सच लिखने की सज़ा यूँ होगी
टूटी क़लम, बिखरी रोशनायी है, और मैं हूँ